हम जीते हैं और मर जाते हैं बिना इस बात को जाने कि हम कौन थे? मैं कौन हूं? इसे बिना जाने ही जीवन समाप्त हो जाता है। क्या यह संभव है कि बिना इस सत्य को जाने कि कौन मेरे भीतर था मैं जीवन के आनंद को उपलब्ध कर सकूं?…
#1: स्वयं की पहचान क्या?
#2: स्वयं की असली पहचान
#3: मन है एक रिक्तता
#4: अकेला होना बड़ी तपश्चर्या है
#5: जंजीर तोड़ने के सूत्र
#6: श्वास का महत्व
#7: शक्ति का तूफान
#8: सौंदर्य के अनंत आयाम
#9: सत्य शब्दों में व्यक्त नहीं हो सकता
#10: जीने की कला
#11: मैं विज्ञान की भाषा में बोल रहा हूं
अपनी आत्मा का तो हमें कोई स्मरण नहीं, अपने स्वरूप का तो हमें तो कोई बोध नहीं, तो अपने वस्त्रों और बहुत प्रकार के वस्त्र हैं। वस्त्र हम जो पहने हुए हैं वे धन के, पदवियों के, पदों के, सामाजिक प्रतिष्ठा के, अहंकार के, उपाधियों के, वे सारे वस्त्र हैं और उनसे ही हम अपने को भी पहचानते हैं? वस्त्रों से जो अपने को पहचानता है उसका जीवन यदि अंधकारपूर्ण हो जाए, यदि उसका जीवन दुख से भर जाए, पीड़ा और विपन्नता से, तो आश्र्चर्य नही है क्योंकि वस्त्र हमारे प्राण नहीं हैं, और वस्त्र हमारी आत्मा नहीं हैं। लेकिन हम अपने को अपने वस्त्रों से ही जानते हैं। उससे गहरी हमारी कोई पहुंच नहीं है। इन तीन दिनों में इन वस्त्रों के बाहर जो हमारा होना है उस तरफ, उस दिशा में कुछ बातें आपसे कहूंगा और यह स्मरण दिलाना चाहूंगा कि जो वस्त्रों में खोया है वह अपने जीवन को गवां रहा है। और जो केवल वस्त्रों ही में अपने को पहचान रहा है, वह अपने को पहचान ही नहीं रहा है, वह अपने को भी पा नहीं सकेगा। और जो व्यक्ति अपने को ही न पा सके उसके और कुछ भी पा लेने का कोई भी मूल्य नहीं है। अपने को खोकर अगर सारी दुनियां भी पाई जा सके तो उसका कोई मूल्य नहीं है।
एक और छोटी कहानी मुझे स्मरण आई वह मैं कहूं और फिर आज की सुबह इस आत्म-विस्मरण के संबंध में जो मुझे कहना है वह आपको कहूंगा। तीन मित्र यात्रा पर निकले। पहली ही रात एक जंगल में उन्हें विश्राम करना पड़ा। खतरनाक स्थान था जंगली जानवरों का डर था। डाकू और लूटेरों का भी भय था। अंधेरी रात थी तो उन तीनों ने तय किया कि एक-एक व्यक्ति जागता रहे, दो सोएं और एक जागा हुआ पहरा दे। एक तो उनमें गांव का पंडित था, एक उनमें गांव का लड़ाका बहादुर क्षत्रिय था, एक गांव का नाई था। नाई को ही सबसे पहले पासा फेंका गया और उसका ही सबसे पहले नाम पड़ा। वह रात पहरा देने के लिए पहले पहर बैठा। नींद उसे जल्दी आने लगी। दिन भर की थकान थी तो किसी भांति अपने को जगाए रखने के लिए उसने बगल में सोए हुए क्षत्रिय मित्र की हजामत बनानी शुरू कर दी। जागे रखने के लिए अपने को उसने अपने मित्र के सारे बाल काट डाले। उसका समय पूरा हुआ। तीसरा जो मित्र था वह था पंडित, रात्रि के अंतिम पहर में उस पंडित को पहरा देने को था। उसके तो बाल नहीं थे उसका तो सिर पहले से ही साफ था, उसके सारे बाल गिर गए थे। दूसरे मित्र का जैसे ही मौका आया उस नाई ने उसे उठाया और कहा कि मित्र उठो! तुम्हारा समय आ गया। अब मैं सोऊं।
उस क्षत्रिय ने अपने सिर पर हाथ फेरा और देखा बाल बिलकुल भी नहीं हैं तो उसने कहा कि मालूम होता है कि तुमने मेरी जगह भूल से पंडितजी को उठा दिया है। उसने अपने सिर पर हाथ फेरा और कहा मालूम होता है कि भूल से मेरी जगह पंडितजी को उठा दिया था और वह वापस सो गया। हम अपने को इसी भांति पहचानते हैं। हमारी पहचान हमारे वस्त्रों तक है। अगर बहुत गहरी जाती है तो अपने शरीर तक जाती है। पर वह भी वस्त्र से ज्यादा गहरी नहीं है। और भी गहरी जाती हो तो मन तक जाती है।
—ओशो
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