उपन्यास का नाम शहर के नाम से। जी हाँ, यह दिल्ली की कहानी है। छह सौ साल पहले से लेकर आज तक की। खुशवंत सिंह की अनुभवी कलम ने इतिहास के ढांचे को अपनी रसिक कल्पना की शिराओं और मांस-मज्जा से भरा। यह शुरू होती है सन् 1265 के गयासुद्दीन बलबन के शासनकाल से। तैमूर लंग, नादिरशाह, मीर तकी मीर, औरंगजेब, अमीर खुसरो, बहादुर शाह जफर आदि के प्रसंगों के साथ कहानी आधुनिक काल की दिल्ली तक पहुंचती है-कैसे हुआ नयी दिल्ली का निर्माण। और अंत होता है 1984 के दंगों के अवसानमय परिदृश्य में। कहानी का नायक-मुख्य वाचक है, दिल्ली को तहेदिल से चाहने वाला एक व्यभिचारी किस्म का चरित्र, जिसकी प्रेयसी भागमती कोई रूपगर्विता रईसजादी नहीं, वरन् एक कुरूप हिंजड़ा है। दिल्ली और भागमती दोनों से ही नायक को समान रूप से प्यार है। देश-विदेश के सैर-सपाटों के बाद जिस तरह वह बार-बार अपनी चहेती दिल्ली के पास लौट-लौट आता है, वैसे ही देशी-विदेशी औरतों के साथ खाक छानने के बाद वह फिर-फिर अपनी औरतों के साथ खाक छानने के बाद वह फिर-फिर अपनी भागमती के लिए बेकरार हो उठता है। तेल चुपड़े बालों वाली, चेचक के दागों से भरे चेहरे वाली, पान से पीले पड़े दांतों वाली भागमती के वास्तविक सौंदर्य को उसके साथ बिताए अंतरंग क्षणों में ही देखा-महसूसा जा सकता है। यही बात दिल्ली के साथ भी है। भागमती और दिल्ली दोनों ही जाहिलों के हाथों रौंदी, दिल्ली को बार-बार उजाड़ा विदेशी लुटेरों और आततायियों के आक्रमणों ने। भागमती की तरह दिल्ली भी बांझ की बांझ ही रही।
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