Jatiwaar Jangadna ( ‘जातिवार जनगणना :संसद, समाज और मीडिया)

Original price was: ₹200.00.Current price is: ₹175.00.

दिलीप मंडल Dilip Mandal ( Author )

  • प्रकाशक- जनहित अभियान और मानक पब्लिकेशंस प्रा, लि.,
    बी-7, सरस्वती कॉमप्लेक्स, सुभाष चौक, लक्ष्मीनगर, दिल्ली-92
  •  पृष्ठ-224

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‘हमारी जनगणना, हमारा भविष्य’- जनगणना में जाति : यथार्थ और विभ्रम

2011 की भारतीय-जनगणना का नारा है-‘हमारी जनगणना, हमारा भविष्य’. लेकिन ‘हमारी जनगणना’ हमारी समग्र पहचान को रेखांकित नहीं करती. वह ‘जाति’ नाम की कड़वी सच्चाई की समग्र पड़ताल से मुँह चुराती है. ऐसे में जिस जातिविहिन-समाज का भविष्यगामी-स्वप्न हमने संजोया है, उसके निर्माण आधार क्या होगा? क्या जातिवार-जनगणना इसके विश्वसनीय आँकड़े जुटाने की दिशा में अधिक प्रगतिशील और स्थाई कदम नहीं हो सकती? जन-प्रयासों और सामूहिक दबाव द्वारा यह संभव है न कि यथास्थितिवादी और प्रतिक्रियावादी सरकार या व्यवस्था से अपेक्षा करने से. वंचितों के सामूहिक प्रयासों और उनकी सकारात्मक माँगों को भरमाने की साजिश की ओर संकेत करती है. व्यवस्था के चरित्र को समझने में जब एक समाजशास्त्री ही मात खाने लगे तो आम-आदमी की बात ही क्या! बहरहाल जनगणना केवल ‘डाटा-संग्रहण’ भर न होकर एक महत्त्वपूर्ण अवसर है देश की सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक-शैक्षणिक संरचना की सही समझ के निर्माण का ताकि अब तक की विभिन्न योजनाओं के क्रियान्वयन की उपलब्धियों और कमियों की दशा और दिशा को जाना-जाँचा-पड़ताला जा सके. जनगणना में अपने समय व समाज की जरूरतों के मुताबिक आँकड़ों की व्यापकता या फैलाव का भी अपना महत्त्व है, वह उसे समृद्ध करता है, उसकी विश्वसनीयता को समय-दर-समय प्रासंगिक बनाता है. लेकिन हमारे देश की जनगणना आजादी के बाद से ही अपने समाज की सबसे क्रूर हकीकत ‘जाति’ (जन्म-आधारित स्थाई संस्था) के अस्तित्त्व तक से इनकार करती रही हैं. ‘जाति’ हमारे समाज की स्थाई और अखिल भारतीय बुराई है यह सभी मानते रहे है. ऐसे में इसकी समाप्ति के स्थाई-समाधानों की तलाश करने के बजाए इसके अस्तित्त्व तक से इनकार समझ से परे है जबकि किसी भी समस्या के मूल कारणों को जाने बगैर उसका इलाज संभव नहीं है. हमारे यहाँ आखिरी जातिवार-जनगणना 1931 में अंग्रजों के शासनकाल में हुई, तब पाकिस्तान और बाँग्लादेश भारत के अंश थे. द्वितीय विश्वयुद्ध के कारण 1941 की जनगणना नहीं हुई और अगली (1951 की) जनगणना स्वतंत्रता के बाद हुई लेकिन हमारे शासकों ने पुन: जातिवार-जनगणना की कोई जरूरत नहीं समझी. यानि केवल सत्ता बदली सत्ता का चरित्र नहीं बदला.

About the Author

दिलीप मंडल पेशेवर संचारकर्मी हैं। देश के दस से अधिक प्रमुख मीडिया घरानों से लगभग दो दशक तक जुड़े रहे दिलीप मंडल वैकल्पिक मीडिया में लगातार प्रयोग कर रहे हैं। वे कॉलेज के दिनों में ही छात्र और मजदूर आन्दोलनों से जुड़े और झारखंड अलग राज्य आन्दोलन में भी शरीक रहे। पत्रकारिता का विधिवत् प्रशिक्षण टाइम्स सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज से हासिल किया। दैनिक जागरण के दिल्ली संस्करण के साथ सांस्थानिक पत्रकारिता की शुरुआत। इसके बाद जनसत्ता के कोलकाता संस्करण, इंडिया टुडे, दैनिक अमर उजाला और इंटर प्रेस सर्विस से जुड़कर प्रिंट की पत्रकारिता की। सम्पादन से लेकर चुनाव और संसदीय रिपोर्टिंग तथा प्र्रिंट माध्यम में लगभग 10 साल का सफर। टीवी न्यूज चैनल आज तक, जी न्यूज और स्टार न्यूज में एसोसिएट प्रोड्यूसर, असिस्टेंट एडिटर तथा सीनियर प्रोड्यूसर जैसे पदों पर रहे। देश के प्रमुख बिजनेस चैनल सीएनबीसी आवाज में एक्जिक्यूटिव प्रोड्यूसर एवं टाइम्स ऑफ इंडिया समूह के बिजनेस पोर्टल इकनॉमिक टाइम्स डॉट कॉम में सम्पादक रहने के दौरान कॉरपोरेट दुनिया और मीडिया कारोबार को करीब से देखने का अनुभव। अपेक्षाकृत महत्त्वपूर्ण काम सांस्थानिक पत्रकारिता से बाहर रहा। मीडिया घरानों में काम करने के दौरान और उसके बाद भी विकास, विस्थापन, जनस्वास्थ्य, शिक्षा नीति और सामाजिक-आर्थिक मुद्दों पर देश के प्रमुख समाचार पत्रों में निरन्तर लेखन। प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में सैकड़ों सम्पादकीय आलेख प्रकाशित। अनेक पुस्तकों के लिए अध्याय लिखे। पहली स्वतंत्र पुस्तक – जातिवार जनगणना: संसद, समाज और मीडिया। एक अन्य पुस्तक जातिवार जनगणना की चुनौतियाँ के सह-सम्पादक। पत्रकारिता प्रशिक्षण से भी जुड़े रहे। डायवर्सिटी मैन ऑफ द ईयर-2010 पुरस्कार से सम्मानित।
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